जीवन की गाँठें
जीवन की गाँठें
जीवन की गाँठें
खुलती ही नहीं,
यह उलझन
सुलझती ही नहीं।
जिंदगी न जाने क्यों
चैन की साँस
लेती ही नहीं।
ये टेढ़ी-मेढ़ी
पथरीली राहे
कहीं जाकर
थमती ही नहीं।
हर चौराहे पे
जा भटक जाती।
अपनी डगर
चलती ही नहीं।
ये जिंदगी न जाने क्यों
कहीं जाकर
थमती भी नहीं।
ये बेचैनी दम
भी लेने देती नहीं।
ये धड़कने
धड़कना भूलती नहीं।
उम्मीद अपना
दामन छोड़ती नहीं।
हर रात के बाद
सुबह सुन
हरी उजाला
दिखाना छोड़ती नहीं।
तपती धूप के बाद
शाम भी अपने घर
आना भूलती नहीं।
वैसे ही
उलझने भी
सुलझना छोड़ती नहीं ,
हर रोज ही दरवाज़ा
खटखटाती,
हर रोज शाम को
अपने घरौंदे में चली जाती।
न जाने क्यों
ये धूपछाँव की चक्री चलना
भूलती ही नहीं।
कभी लंबी धूप
कभी लंबी छाँव
जिन्दगी इन्हें सहना
सीखती ही नहीं।
तभी यहाँ-वहाँ भटकती
हताश होना छोड़ती ही नहीं।
हर पल, हर क्षण भूल जाती
ये ही जीवन की लीलाएँ
जो रुकती नहीं।