शहरों की होली
शहरों की होली
सुबह फोन की घंटी ने मुझे जगाया ,
पीहर से माँ का संदेश था आया ,
अपने होली के त्योहार के पैसे लेने आजा ,
घर में सब व्यस्त हैं तू खुद ही आजा।
सुनकर उनकी ऐसी कर्कश वाणी ,
होली की उमंगें भी अब हुई पुरानी ,
त्योहारों के आने का जब हो ऐसा स्वागत ,
तो कौन खायेगा होली की मीठी दावत ?
सुनकर मंद ही मंद पति मुस्कुराने लगे ,
भाई की व्यस्तता पर मुझे चिढ़ाने लगे ,
शहरों की होली देखो कितने रँग है लाई ,
जहाँ बहन के घर आने से बचता है अब भाई ।
जहाँ रिश्तो में कड़वाहटें आज भरी पड़ी हैं ,
व्यस्त होने के दिखावे की अब होड़ बढ़ी है ,
रँग , गुलाल , अबीर अब धूमिल हुआ है ,
गले लगाना भी कितना मुश्किल हुआ है।
जहाँ पिचकारी से होती कपड़ों की खराबी ,
रँग लगाने पर घटती झूठी शान की चाबी ,
इसलिये व्यस्त समय का रोना हरदम रोते जाओ ,
होली क्यूँ आई .... इस बोझ को ढोते जाओ।
