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Praveen Gola

Tragedy

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Praveen Gola

Tragedy

शहरों की होली

शहरों की होली

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सुबह फोन की घंटी ने मुझे जगाया ,

पीहर से माँ का संदेश था आया ,

अपने होली के त्योहार के पैसे लेने आजा ,

घर में सब व्यस्त हैं तू खुद ही आजा।


सुनकर उनकी ऐसी कर्कश वाणी ,

होली की उमंगें भी अब हुई पुरानी ,

त्योहारों के आने का जब हो ऐसा स्वागत ,

तो कौन खायेगा होली की मीठी दावत ?


सुनकर मंद ही मंद पति मुस्कुराने लगे ,

भाई की व्यस्तता पर मुझे चिढ़ाने लगे ,

शहरों की होली देखो कितने रँग है लाई ,

जहाँ बहन के घर आने से बचता है अब भाई ।


जहाँ रिश्तो में कड़वाहटें आज भरी पड़ी हैं ,

व्यस्त होने के दिखावे की अब होड़ बढ़ी है ,

रँग , गुलाल , अबीर अब धूमिल हुआ है ,

गले लगाना भी कितना मुश्किल हुआ है।


जहाँ पिचकारी से होती कपड़ों की खराबी ,

रँग लगाने पर घटती झूठी शान की चाबी ,

इसलिये व्यस्त समय का रोना हरदम रोते जाओ ,

होली क्यूँ आई .... इस बोझ को ढोते जाओ।



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