अर्धांगिनी
अर्धांगिनी
प्रभु श्रीराम के संग ही ब्याह हुआ था
उनके तीनों भ्राताओं का जनकपुर नगरी में
जानकी की तीनों बहनें बनकर आयी ननदें
किन्तु नियति का क्रूर खेल रचा जा चुका था
बड़े जतन से संजोये सपने थे नवेली दुल्हनों ने
ना सोचा महलों में आकर भी बिखर सारे जाएँगे
चौदह वर्षों का वनवास, भरत को राजसिंहासन
माता कैकई के मांगे वचनों ने बिखेर दिया परिवार
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की जानकी गेरुआ पहनी
अपने स्वामी के हर कठिन पथ पर बनने संगिनी
लक्ष्मण रहे ना थे कभी प्राणप्रिय भ्राता से जुदा
अपनी अर्धांगिनी उर्मिला से हुए प्राणनाथ विदा
राहें कंटक भारी सिर्फ वैदेही की नहीं थी जंगल में
महल की रौनक
में भी उर्मिला कर रही थीं संघर्ष
पति संग सहन कर सकती थीं वो भी मुश्किलें सारी
अपनी मौजूदगी को भी पति की खातिर छुपा लिया
पति के कर्तव्य निभाने में नींद बने ना कभी अवरोध
इसलिए स्वम् को निंद्रा रानी के हवाले सौंप दिया
सुख का अहसास हो या ग़म की टिसती तकलीफ़
बंद पलकों में उर्मिला ने इन अनुभूतियों को जिया
अपने स्वामी से दूर तन था मन तो उनके ही संग था
प्रार्थना में उनकी सलामती की रौशन लौ ही लौ थी
दीदार के इन्तजार में उम्मीदों भरा ये पूरा जन्म था
त्याग इनका तपस्या के ओज से जरा ना कमतर था
ना मिली वो स्थान जिनकी उर्मिला सदा हकदार थी
बस अपने स्वामी को पाकर हृदय इनका धन्य था।