विभावरी
विभावरी
बीत रही है यह विभावरी
जाग री, धीरे-धीरे
भोर का धुंधलका दे रहा है
दस्तक...
तिमिर और तारे भी जा रहे हैं
धीरे-धीरे....
बीत रही है यह विभावरी...
रश्मि के रथ पर हो कर आरूढ़
कल का सूरज उगेगा,
धीरे-धीरे जाग री....
पक्षी भी करेंगे,
कलरव --और
विचरण मुक्त गगन में
सुमन वृन्द भी बिखेरेंगे
अपनी सुगंध को
इस वसुधा पर
धीरे-धीरे....
नव चेतना का संचार जगेगा
मानव मन में... कि
चलो, कुछ काम करें देश हित में
जाग री..
बीत रही है यह विभावरी
जाग री..... धीरे-धीरे।।