उम्मीदों का बोझ
उम्मीदों का बोझ
हर उम्मीद का बोझ मुझ पर ही क्यों,
हर दोष मेरे सिर ही क्यों।
मैंने जब अपनी उम्मीदों की बात की,
तो मुझे स्वार्थी कह तिरस्कृत किया गया,
तब मैं समझ गई कि तुम एक पुरुष हो और मैं एक स्त्री।
तुम्हें अधिकार मिले हैं और मेरी किस्मत में सिर्फ आदेश लिखे हैं।
तुम्हें खुला आसमान मिला है,
और मेरी किस्मत में लिखा है सिर्फ धूप का एक कोना।
क्या मिला मुझे रिश्तों में बंधकर?
बन गयी मैं दिन में चूल्हा और रात में बिस्तर।
तुम्हारी हर उम्मीद पूरी करती गयी,
और तुम्हारे दोषों का बोझ अपने सिर लेती गयी।
खोती चली गई मैं खुद को कभी तुम्हारी जिंदगी का,
कभी समाज का हिस्सा बनने के लिए।
मैं कुछ अलग करना चाहती थी माँ,
और देखो अंत में , मैं तुम जैसी ही हो गई।