बचपन
बचपन
एक बचपन ऐसा भी है
जो छोटू के नाम से चाय की दुकानों में ग्लास धोते हुए पलता है।
और दूसरा मोबाइल की कैद में पिज़्ज़ा खाने की ज़िद में सिसकता है।
सड़क पर पलता बचपन दो वक़्त की रोटी के लिए
दिन-रात मेहनत करता है।
स्कूल जाते बच्चों को देखता है रोज़ तरसती हुई निगाहों से
रात को कोने में बैठकर जमा हुए पैसों को गिनता है।
गुल्लक भरती नहीं और ख़्वाब कम होते नहीं
कुछ सवाल करता है ईश्वर से
और जवाब ना मिलने पर थककर सो जाता है।
माँ ने एक नाम रखा था प्यारा सा
पर दुनिया ने उसे छोटू बना दिया।
उसके बचपन को हम जैसे कई ब
ड़ों ने
इतनी बार तोड़ा वो भूल गया कि वो कभी बच्चा भी था।
ऐसे कई बचपन सड़कों पर रोज़ पलते है
रोज़ मरते हैं
हम सभ्य समाज के सभ्य लोग सिर्फ अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं।
साहस नहीं हैं हममें से किसी में
उस बचपन को सहेजने का सँवारने का
हम बड़े लोग बस बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।
अपना बच्चा कितना भी गलत क्यों ना हो
उसमें सिर्फ मासूमियत दिखती है।
सड़क पर पलते हुए बचपन को देख
ह्रदय चीत्कार नहीं करता
ना जज़्बात उबलते हैं।
हम खामोश रहते हैं बस
और बिना कोई बोझ लिए साँसों पर
चैन से जीते हैं।