स्टैच्यू..!
स्टैच्यू..!
बहुत पसंद था तुम्हें
हर बात पर मुझे
स्टैच्यु कह देना,
और मैं...?
मैं...!
बुत बन
सिर्फ तुमको सुनती रहती;
उस दिन भी यही हुआ था,
याद है मुझे;
वो क्षण /
जब मैं कहना चाहती थी कुछ,
कुछ कदम ही
बढ़ाया था मैंने तुम्हारे तरफ
कि...,
तुमने पुनः
बुत की तरह रोक दिया
स्टैच्यू कहकर/
और...
ठहाके लगाने लगे
अपनी इस जानी पहचानी सी
हरकत पर...!!
और आज...?
आज कहते हो कि...,
काश...!
उस वक़्त
स्टैच्यू कह दिया होता
जब तुमने थामी थी
ऊँगली मेरी...!
तस्वीर बन
तकदीर को चिढ़ाते
हम दोनों...!
पर...!
ये तो बतलाओ
तुमने कब थामने दिया
अपनी ऊँगली को...?
मुख तो अब भी चिढ़ाते हैं,
वक़्त के साथ
बुत पर पड़ी ये रेखाएँ
पर...!
तुम्हारे स्टैच्यू कहने
और मेरे बार-बार बुत हो जाने की लत पर...!
फिर /
अफसोस किस बात का...?
एक बुत ही तो हूँ
जो आता है
अपने- अपने सहूलियत के हिसाब से
इधर- उधर कर जाता है...!
पर...!
हमारे दरमियाँ
इक फ़ासला जो बना दिया
तुम्हारे इक शब्द ने
वो आज भी कायम है...!
हाँ...!
बुत तुम तक आ नहीं सकता
और तुम...??

