सफर - तन्हाईओं का
सफर - तन्हाईओं का
मैं देखता हूं
जगत की हर एक रचना
मेरे भीतर कितना
अकेली है?
नदियां छोड़ती है ग्लेशियर
पंछी घोसले को
बूंद बादल को और
हवा सागर को
तन्हाई चलती है साथ
रहती भी है।
और इससे भी अधिक
अकेला है मरूस्थल
न घास न जीव
यह बालू भी उड़ जाती है
खोज लेती है नया ठिकाना
ये गगनचुंबी इमारतें
बस दिखावे के लिए है
इनमें बसता नहीं
पला बढ़ा परिवार
और सड़कें और भी ज्यादा
तन्हाई में जीती है
क्यूंकि नहीं रूकते
किसी के पांव यहां
इससे भी अधिक है तन्हा है
एक कवि जो मात्र
कल्पनाएं बुनता है
अपने को पूरा करने की
ठीक वैसे जैसे नभ
धरा से मिलन को
पूरा करता है क्षितिज के सहारे।