शायद, यही सच है
शायद, यही सच है
अलसाई-सी शाम ढल रही है
क्षितिज में सूरज भी डूबने को है
मगर सिंदूरी आकाश में
जैसे अनहोनी के स्याह बादल खड़े हैं
शायद वक़्त भी ठहर कर देखता है ये नजारा
कब्रिस्तान में जहाँ कल सन्नाटा पसरा था
आज अचानक इतना कोलाहल कैसे
इंसानी लाशों के ढेर लगे हैं हर तरफ़
शायद दफनाने को ज़मीं भी सिकुड़ गयी
जो कल तक आँखों में ख़्वाब सजाकर
खुशियाँ बांटा करते थे,
आज उनकी लाशों को नोचने के ल
िए
गिद्ध भी मंडरा रहे है उनके सर पर
हाय! वक़्त ने भी कैसी करवट बदली है
ज़िंदा इंसानों को पलक झपकते ही
लाशों के ढेर में बदल दिया
कितनी और महामारियाँ जन्म लेंगी
कितनी जिंदगियाँ और ख़त्म होंगी
शायद, इसका जवाब किसी के पास नहीं
रे, मानव तू कितना बेबस
कितना असहाय हुआ है कुदरत के सामने
तेरा ज्ञान, तेरा विज्ञान
कितना बौना है, आज मालूम हुआ