डरावनी रात
डरावनी रात
सुनसान सड़क तेज हवाएंँ हो रही थी बारिश की बौछार,
कदम आगे बढ़ने को राजी नहीं, मानो हो गई हों लाचार,
बंद पड़ गई गाड़ी मेरी पानी हो गया था सड़कों पर जाम,
लौटना भी है घर अपने ढल रहा दिन होने को आई शाम,
पानी ही पानी भरा हर तरफ, सड़क का अता- पता नहीं,
दोनों तरफ जंगल ऐसा है भयानक,जाता अब रुका नहीं,
रह रह कर मन में बस एक ख़्याल बार-बार आ रहा था,
यही रात कहीं अंतिम रात न हो जाए, यही डरा रहा था,
फिर भी हिम्मत से आगे बढ़ने की, कोशिश कर रही थी,
ये अलग बात, मन ही मन देख ये नजारे, डर भी रही थी,
अभी हिम्मत कर आठ-दस कदम ही बढ़ा पाई थी आगे,
कि एक भयानक आवाज़ सुनकर मानों रुक गई हैं सांँसे,
अभी खुद को संभाला ही था यह कैसी कयामत है आई,
एक तो तूफ़ान का कहर ऊपर से यह आवाज़ रहस्यमई,
देखते ही देखते नज़दीक आती गई वो डरावनी आवाज़,
फट रहे थे कानों के परदे, आखिर क्या छिपा इसमें राज,
ना कोई चेहरा था और ना कोई आकृति ही आस -पास,
फिर इस डरावनी आवाज़ का, क्यों हो रहा था आभास,
बंद किया कानों को मैंने फिर अपना ध्यान भी भटकाया,
पर आवाज़ से बचने का, हर प्रयास मेरा विफल हो गया,
उस भयानक आवाज़ के रूप में, मानों सामने मौत खड़ी,
आगे कुआंँ पीछे खाई, ये कैसी विपदा हे ईश्वर आन पड़ी,
यह सब सोचते सोचते किसी तरह हिम्मत से आंँखें खोली,
पानी का रंग हुआ लाल, खड़ी थी वहांँ पूूरी भूतों की टोली,
देख ऐसा मंजर तन जम गया बर्फ सा ख़त्म हो गई चेतना,
काटो तो बदन में खून नहीं, ये हकीकत है या फिर सपना,
हलचल नहीं थी शरीर में पर दिख रहा था आंँखों को सब,
एहसास ही नहीं हुआ आसपास का मंजर बदल गया कब,
करंट का एक झटका सा लगा अचंभित था सब कुछ वहांँ,
हर तरफ सूखे में कंकाल बिखरा, पानी आखिर गया कहांँ,
ना आस-पास जंगल था, ना सड़क का ही कोई अता पता,
दूर तक जहांँ नज़र जाती, कंकाल ही कंकाल बिखरा पड़ा,
आखिर कौन सी दुनिया है ये, खोती जा रही सुध बुध मेरी,
हिम्मत दे रही थी जवाब, आंँखें भी हो रही थी धुंँधली मेरी,
जकड़ गए थे कदम ऐसे मानों बंँध गए हों किसी जंजीर से,
प्राण हरने को तैयार बैठा है यह वक़्त आज डर की तीर से,
तभी अचानक, किसी ने पीछे से आकर, हाथ मेरा पकड़ा,
पलटकर देखा तो था खून से लथपथ एक भयानक चेहरा,
देख कर यह खौफनाक नज़ारा, बेहोश होकर मैं गिर पड़ी,
आंँख खुली तो अपने कमरे में अपने बिस्तर पर थी मैं पड़ी,
सामने मांँ खड़ी पुकार रही, लेकर हाथ में, चाय का प्याला,
असमंजस में देखा इधर-उधर, पीछे का दरवाजा था खुला,
इतने में मांँ बोली कितना सोएगी आज ऑफिस नहीं जाना,
पर मेरा ध्यान तो अटका ,वहीं पर था, कैसा था यह सपना,
तभी सहसा कदम मेरे, पीछे के दरवाजे की ओर बढ़ने लगे,
देखा तो कंकाल के कुछ टुकड़े थे वहांँ, इधर उधर पड़े हुए,
अब मेरी समझ से बाहर हो रहा था, यह खौफ़नाक नज़ारा,
हिम्मत नहीं थी तन में यह सब झेल सकूंँ फिर से मैं दोबारा,
हमेशा के लिए उस डरावने दरवाजे को, मैंने कर दिया बंद,
थक चुकी , हार चुकी थी मैं, इस डर से करते-करते ये द्वंद,
एक भयानक ख़्वाब था वो, या हकीकत किसी ख़्वाब की,
भुले नहीं भूली, वो रहस्यमई आवाज़ उस डरावनी रात की,
आज भी रह-रहकर वो आवाज़, कानों में पड़ ही जाती है,
आज तक समझ ना आया, आखिर क्या मुझसे चाहती है।