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विश्व शांति की ओर

विश्व शांति की ओर

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रक्त में सनी गलियां

दीवारों में ढेरों छेद


भय के अँधेरे में गुजरती रातें

सशस्त्र पोशाक में दिखते लोग

कृत्रिम सीमाओं पर खत्म होती राहें

और ‘विश्वशांति’ की ओर चली दुनिया


मजहब पूछते लोग

सरहद की कंटीली तारों पर लगा रक्त का दाग


आजादी के नारों में गुलाम होता इंसान

विदेशों से आयात किये हुए घाव


मरहम को इंकार करता वो देश

और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की ओर चली दुनिया


पलायन में छूटा बहुत सारा सामान

और गोलियों की आवाज़ में सोता उसका बचपन

अपनी जन्मभूमि को कोसता वो देशभक्त

जिसके परिवार में सिर्फ वही सशरीर


अखबारों के लाल पन्नों से झांकता वो हैवान

और ‘मानवता’ की ओर चली दुनिया


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