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AMAN SINHA

Abstract Drama Horror

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AMAN SINHA

Abstract Drama Horror

मन का डर

मन का डर

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काँप उठता है बदन और धड़कने बढ़ जाती है

शब्द अटकते है जुबां पर साँसे भी थम जाती है

लाल हो जाती है आंखें भौह भी तन जाती है

सैकड़ो ख्याल मन को एक क्षण में घेरे जाती है


खून बेअदबी से तन में फिर बेधड़क है भागता 

नींद से आँखे भरी पर रात भर है जागता 

मन किसी भी काम में फिर कहीं लगता नहीं 

अपने हीं विचार पर ज़ोर तब चलता नहीं


गर्मियों के दिन मे भी ये जिस्म ठंडा हो जाता है

दिखता तो है ज़िंदा लेकिन जीते-जी मर जाता है 

बेखयाली बदहवासी उसपर सिहरता बदन

तन से वो जगता दिखे है सो गया है उसका मन


शब्द बाकी है मगर ये होंट हीलते ही नहीं 

भाग जा ये मन कहे पर पैर ही चलते नहीं 

है पसीना माथे पर और पेट मे है खलबली 

पीठ की भी पेशियां अब हो रही है मनचली


कोई कुछ भी बोल दे पर याद कुछ रहता नहीं

दिल में रहता है मगर दिमाग में टिकता नहीं

क्या है कहना क्या है सुनना कुछ समझ आता नहीं

एक बार डर गया जो कुछ भी कर पाता नहीं 

 

भागते है जब तलक हम तब तलक भगाता है 

अपनी कल्पना से भी भयानक दिन हमें दिखाता है 

एक ही बस हल है इसका डट कर इससे हम लड़े

सामने दीवार बनकर हो जाये हम खड़े।


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