श्री राम की सोच
श्री राम की सोच
आज मुझे दुख होता है सीता को कष्ट कितना है
महल की इस सुकुमारी को वन में अब रहना है
मेरे पिता के वचनों को तो मुझे निभाना था
पर सीते तुम्हे कौन सा वचन निभाना था
आज मुझे दुख होता है सीता को कष्ट कितना है।
मैं तो कांटो का दर्द सह लूंगा
सीता कैसे दर्द सह पाएगी
मैं तो कुछ भी रूखा सूखा खा लूंगा
सीता कैसे रूखा सूखा खा पाएगी
मैं तो घास फूस पे सो जाऊंगा
सीता कैसे सो पाएगी
आज मुझे दुख होता है सीता को कष्ट कितना है
वन में ना जाने कैसे कैसे जीव मिलेंगे
कुछ तो खूंखार जीव भी होंगे
रात में भयानक गर्जना होंगे
सीता कैसे झेल पाएगी
उन जीवों से डर जायेगी
जितना मुझे समझ है समझना भी कितना है
आज मुझे दुख होता है सीता को कष्ट कितना है।
मौसम को में झेल लूंगा
सीता क्या झेल पाएगी
अंधेरे में मैं रह लूंगा
सीता क्या रह पाएगी
भूखा भी कभी मैं रह लूंगा
सीता क्या रह पाएगी
जमीन पे मैं सो लूंगा
क्या सीता भी सो पाएगी
पता नही अब और क्या क्या कष्ट झेलना है
आज मुझे दुख होता है सीता को कष्ट कितना है।
नौकर और दासी जो सेवा में रहते थे हरदम
क्या सीता अब खुद कर पाएगी
भोजन भी जहा बने बनाए थे मिलते
क्या सीता अब खुद बना पाएगी
जो एक कदम चलती नही थी पैदल
क्या अब पत्थरों पे चल पाएगी
मेरे साथ निभाने की सजा मिलेगी इतना
आज मुझे दुख होता है सीता को कष्ट कितना है।
इससे सिख मिलेगी दुनिया को
पति और पत्नी जीवन के दो पहिया है
एक को कष्ट है होता दूसरा अपने आप है रोता
एक है मुस्कुराता तो दूसरा है खुश हो जाता
जीवन की अपनी एक अलग कहानी है
ये तो श्रीराम की सोच जुबानी है
ये तो श्रीराम की सोच जुबानी है।
