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मन

मन

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मन मार के जीते हैं

जीवन से हारे लोग

क्या-क्या नहीं सहते 

हैं ये बेचारे लोग


बचपन जिनका खेला 

हो माटी के खिलौने

क्या जाने वो कैसे 

होते मखमली बिछौने, 

चादर घटती जाये 

कैसे पैर पसारे लोग

मन मार के जीते हैं

जीवन से हारे लोग। 


डूब गये कितनो के सूरज 

शाम ढलने से पहले

बिन जागे ही टूट गये 

सपने जो रहे सुनहले,

कौन बने अंधे की लाठी 

बिना सहारे लोग

मन मार के जीते हैं

जीवन से हारे लोग।


जीवन पथ पर करना 

पड़ता अथक परिश्रम

मेहनत पूरी-पूरी रहती 

मज़दूरी फिर भी कम, 

सुने खरी खोटी 

रोटी हित दुखियारे लोग

मन मार के जीते हैं

जीवन से हारे लोग।


दूसरे की शर्तों पर ही 

जिनका जीवन चलता

विस्तार भला कैसे तब 

निज इच्छा को मिलता, 

मन की मन में रखते हैं

रहते मन मारे लोग

मन मार के जीते हैं  

जीवन से हारे लोग। 



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