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अस्मिता हूँ

अस्मिता हूँ

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तुम कैसे समझोगी मुझे

तुम्हारे लिए ज़िन्दगी घूमती है

तुम्हारे सीमित दायरे में

पति बच्चे और तुम

एक निश्चित उम्र में

तयशुदा ज़िन्दगी

उम्र का इसी अंदाज में

घिसटना /रेंगना और गिर पड़ो तो

पीटना सर 

तुम्हारे लिए चिरकाल से पहेली हूँ मैं

और पहेली ही रहूंगी।

......

लगाती रहो अनर्गल आरोप

तुम ही तय करती रहो आरोप

सुनवाई/पैरवी/और निर्णय भी

तुम्हारी अदालत में और भी हैं

चन्द मादाएं /तुम सी ही

तभी तो तय होता है/गठजोड़

निरर्थक प्रवंचनाओं का

गलती हैं कुंठाएं/निंदा के मत्त कर देने वाले आसव में

......किन्तु......

कहाँ तलाश पाती हो/समाधान

दृष्टि हीनता के अभाव में

उलझी रही आती है पहेली

.........

तुम्हारा अर्जित सम्पूर्ण /छलावा है

तुम्हारे होने सा ही

ये संचित कोष/ रिक्त ही रहना है

देखो और महसूस करो

पर कैसे करोगी

दृष्टिहीनता यहाँ भी आड़े आ जाती है

मुझे समझने की

......

मन की गिरहें /खुलती भी कैसे

तुम बुनती रही जाल/कुटिलताओं के

तुम्हारी आँखें/तलाशती हैं सिर्फ़ खोट

तो कैसे दिख पाएंगी/निर्मलताएं

तुम अपनी बदसूरती से /विलग होतीं

तब न देख पातीं/सुन्दरता मेरे मन की

तुमने उलीचे कीचड़/पर हार गईं

क्योंकि मैंने/खिला दिए कमल

तुम्हारी डाह/ निखारती ही गई मुझे

मैंने दहलीज़ के अन्दर रह ही

रच दिए/इंद्रधनुषी संसार

और जीत लिया मन

विधाता का भी

.....

कितना सरल था

मुझे जानना

ईर्ष्या रहित हो /मुक्त कंठ से

एक बार ही सही पास आतीं

तो हल हो जाती ये पहेली

दूसरों के दुखों को/जीना

अपना आप भुला के

अपनाना किसी का एकाकीपन

समेटना प्रेम को/बच्चे की

निश्छल मुस्कान सा

कर देना न्यौछावर /अपना सर्वांग

तन से/मन से

यही तो है हल

मेरी अस्मिता का

महज़ मादा नहीं हूँ मैं

अस्मिता हूँ मैं

हाँ अस्मिता हूँ मै


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