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Arti Tiwari

Classics Inspirational

5.0  

Arti Tiwari

Classics Inspirational

और तुम

और तुम

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पार्थ ,क्यों संज्ञा-शून्य हो

अनसुनी करते रहे पुकार मेरी

प्रत्यंचा सी खीँच हर बार

छोड़ दिया मुझे थरथराती!

क्यों नहीं किया शर-सन्धान

देह के आकर्षण से परे

नेह के पाश में बिंध

निमिष-निमिष छटपटाती रही मैं

और तुम

सव्यसाची ,तुम कर द्वय से

करते रहे अग्निबाणों की वर्षा

मैं प्रणय-दग्धा याज्ञसेनी

प्रतीक्षाकुल रही वर्षा की

फुहार के लिए

देह का अभिमान और मन का दरकना

दोनों को ही जीती रही

पाषाणी नहीं थी पांचाली

तुम ही नहीं समझ सके

अथवा सप्रयास अनभिज्ञ बन बैठे रहे

कैसे अपनी लाज को ढकने

एक टुकड़ा चीर को पाने

कैसे अपनी मर्यादा बचाने

यशस्वी कुरुकुल की स्नुषा

दिग्विजयी धनुर्धर की पत्नी

तरसती रही

और तुम

धनंजय तुम रत्नों के ढेर पर बैठे

देखा किये, मेरा तिरस्कार

अपने नपुन्सक गाण्डीव को धारण किये

अपरिचित से

द्रौपदी,असाधारण बुद्धिमती/तेजमयी

रूपगर्विता/सुगंधिता

नहीं नहीं अर्जुन

यह तो एक दीन एकाकी असहाय

साधारण अबला स्त्री का विलाप था

क्रन्दन से गूंज गईं थीं

दसों दिशाएं और अखिल ब्रम्हाण्ड

    

और तुम

विजेय तुम नहीं देख पाये

कृष्णा के इस दैन्य को

राज-महिषी के अपमान को

भवितव्य को गर्त में ले जाते

इस कलुषित क्षण को

अवाक् अप्रतिम से

कृष्णा क्यों स्वीकारती पराजय

कृष्ण को पुकारना ही था

सौंप कर अपनी लज्जा का भार

उन्हें उऋण ही तो किया था

      

और तुम

फ़ाल्गुनि,तुम चिर-ऋणी ही रहे

मानिनी श्यामला के

स्वीकार न सके मेरा अगाध समर्पण

द्रुपद्सुता के असाधारण बुद्धित्व/ अद्वतीय सौंदर्य के उपासक

न हो सके तुम

अनसुनी कर पुकार मेरी

मात्र कौन्तेय ही बने रहे

कौन्तेय ही बने रहे।


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