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ज़िंदादिल लड़की

ज़िंदादिल लड़की

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लड़की पली है

बड़े अभावों में

गेंदा, गुलदाऊदी, गुलाबों से दूर

नदी से पानी भर लाती रही

घर भर को

खुश है फिर भी

खिलखिलाती है बात-बात पे

घिसती रही बर्तन 

सुबह से शाम ढले तलक

ऊगता रहा सूरज

और डूबता रहा

उसको क्या

उसने नही ओढ़ी कभी

गोटे किनारी की ओढ़नी

पर

अपने सूती लंहगे ओढ़नी में

लजाती है/ दर्पण के सम्मुख

देह के सरोवर में प्रतिबिंबित अक़्स देखके

ख़ुशी से दमकती/ नदी में फेंकती कंकर

कभी-कभी भूखी भी रह जाती है

पर पड़ोस की कमली चाची के

मनाने पर भी/ नही खाती मांग के रोटी

काजल बिंदी चूड़ी से महरूम लड़की

पूर देती है हर कमी

अपनी निर्दोष मुस्कुराहट से

उसकी देह से फूटा/ नैसर्गिक सौंदर्य

दुगना कर देता है/ उल्लास

नही रोती/ बात-बात पे

अपनी अल्हड अठखेलियों से

चुनौती सी देती लगती है

कमियों और अभावों को

ज़िंदादिल लड़की !


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