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कवितायेँ खामोश है

कवितायेँ खामोश है

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मेरे अन्तर के मौन हाहाकार में

कुछ कवितायेँ/ खामोश सी रहती हैं

जैसे/ दबी-कुचली स्त्री

सर पे उठाये बोझा/ थोपी गई ज़िम्मेदारियों का

ओढ़े रहती है/ चुप्पी की चादरें

अचानक आगंतुकों के आने पे

चिपका लेती है/ एक नक़ली मुस्कुराहट

पपड़ाए होठों पे/ और करती है स्वागत 

रिसती यातनाओं को/ पल्ले की ओट में लेकर

मनचाहा एकान्त पाते ही

फूट पड़ता है / ज्वालामुखी घावों का

बहने लगता है लावा/ तरसती तमन्नाओं का

चीखती चुप्पियाँ मानो /विस्फोटक हो 

गुंजा देती हैं/ आसमान

किन्तु क्षणिक स्नेह और अपनत्व

धो डालता है मैल/ जमा बरसों का

और स्त्री / तलाश ही लेती है

धैर्य का नुस्खा/ मीठी दवा सा

शबरी के बेरों में

कवितायेँ भी/ फ़ूट ही पड़ती हैं

पत्थर का ज़िगर / चीर के

ऐसे ही/ अनायास 

निश्छलता / की गोद को

उदगम बना/ बह निकलती हैं


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