प्रतीक्षा मत करो
प्रतीक्षा मत करो
तुम्हारी आँखों में उदासी का काजल
पिघलने लगा है रिसने लगा है गाढ़ा मटमैला द्रव
नदी का बहता पानी झुलसने सा लगा है
तुम्हारी प्रतीक्षा की आँच से
मत करो प्रतीक्षा गुम हो जाने दो
अपना रेशा-रेशा दुःख इन खामोश वादियों के
चीखते सन्नाटे में और जी लेने दो इन्हें
तुम्हारी मखमली संवेदन
तुम्हारे आँसू इससे पहले कि कर दें नमकीन
पहाड़ी नदी के पानी का स्वाद
इनकी फुहारों से सींच दो शब्दों के बीज
के अंकुरित होके जी उट्ठेंगे
तुम्हारे ख्याल फिर से
और इन सुहानी वादियों में
खिल जायेंगे वफ़ा की टहनियों पे
उमंगों के फूल
मत करो प्रतीक्षा
किसी शापित दुष्यंत की
जो तुम्हे नही चीन्हता
वो प्रेम जो एक अंगूठी की
मिथ्या परिधि में लपेटा गया हो
तुम्हे कैसे स्वीकारेगा
समय साक्षी है तुम शकुन्तला हो
इस समय की जिसमें स्त्रियों के जीने के अर्थ
तय करती हैं वे खुद अपना शकुन्तला होना
तुम शकुन्तला हो
और वही रहोगी सृष्टि के अंतिम छोर तक
किसी शापित दुष्यन्त के लिए प्रतीक्षा करने को
विवश नहीं हो तुम
बचे-खुचे साहस को समेटो
और देखो बड़े सपने
पूरे करने के लिए
और निकाल फेंको अपने भीरु प्रेयस को
अपने विचारों के दायरे से
मुक्त हो जाओ इस भ्रम जाल से
देखो कैसे झरता है हरसिंगार
फूलता है मोगरा फिर-फिर हर बार
तुम भी वल्लरी सी झूम जाओ
बन जाओ फिर से कण्व-दुहिता
प्रकृति तुम्हे समेटने को आतुर बाहें पसारे
वन-लताएँ पहाड़ी झरने तुम्हे
चूमना चाहते हैं.....उठो और दौड़ कर
समो लो समय की इस धारा को
जो आकाश की ऊंचाइयों से झाँक रही
पक्षियों की वी के आकार में उड़ती श्रृंखला से
देख रही तुम्हारी ओर उम्मीद से
आओ और जी भर के जिओ
अपने हिस्से का आकाश
केवल अपने लिए
जैसे जीती है आज़ाद पक्षिणी
तोड़ के पिंजरे के कृत्रिम नेह बन्ध
तुम तो एक पूर्ण स्त्री हो