गंगा () - दो शब्द
गंगा () - दो शब्द
गंगा
अब तुम भी
भारतीय नारियों की तरह
हम पुरुषों द्वारा बांधी गयी कथित सीमाओं को तोड़ कर
आगे बढ़ रही हो-
और
संस्कृति और संस्कारों के नाम पर थोपी गयी ज्यादतियों को
अपने क्रोध, तर्क और वेग से
विध्वस्त कर रही हो-
आखिर हमने तुम्हारे अस्तित्व को
अपनी स्वार्थ की वेदी पर करते हुए बलिदान
तुम्हारे चाहे या न चाहे अहसासों को कब पहचाना है-
कभी मल, कभी शव,
कभी गंदे कारखानों के गंदे पानी के नालों से
और कभी ओछी प्रवृत्ति से
तुम्हारे दिल के दर्दों को कब जाना है-
हमारी मनुष्यता तो देखिये
तुम्हारी पवित्रता बनाने की योजनाएं लेकर
बड़े बड़े होर्डिंग और पेपर - टीवी पर
दिन रात छा गये-
गरीबों और टेक्स देने वाले ईमानदार लोगों की
कमाई को कुछ लोग
बंदर बांट करके बिना डकार लिये खा गये-
सच तो यह है कि
कल की तरह सहृदय, सरल,
कोमल, निर्मल, निश्छल, निष्कलंक,
जीवनदायिनी का आंखों में आज भी वही चित्र है-
गंगा और नारी
दोनों को हम मानवों ने अपने मनुष्य के घमंड में ही किया है कलंकित
वरना
वह कल की तरह आज भी पवित्र है--
