कहो कबीरा
कहो कबीरा
ठंड लगी है, सिकुड़ रहे हो
कहो कबीरा ! चादर दूँ ?
मन की पीर नही ले सकता
तन के हित क्या लाकर दूँ ?
मेरी चादर कुछ मैली है
थोडा सा सह लोगे क्या ?
अभी भोर में बहुत देर है
अपनाकर रह लोगे क्या ?
तुमसे एक जुलाहे तुम ही,
तुमको क्या बनवाकर दूँ ?
काशी में कबीर हो जाना
आज शिष्ट व्यवहार नही,
और नगर ये उलटबांसियां
सहने को तैयार नहीं ।
सुनो कबीरा ! वहाँ न जाना
धूनी यही रमाकर दूँ ?
हो सकता है समय लगे
"मगहर" होने में काशी को,
कबीरा से अल्हड फ़कीर का
घर होने में काशी को ।
बोलो तुम्हें कहाँ से सुख दूँ,
कहो कौनसा आदर दूँ ?
दुनिया की हालत है जैसे
धुनी रुई के फाहे की,
क्योंकर उसको फिक्र नहीं है
वो भी एक जुलाहे की ?
जटिल पहेली पूछी साधो
मैं कैसे सुलझाकर दूँ ?
