सोचता हूँ
सोचता हूँ
आज संवेदन अगर
इस अंजुरी से झर गया तो
सोचता हूँ क्या तुम्हारे
और मेरे पास होगा ?
सोचकर देखो, समय ये
अजनबीपन बो गया तो ?
देह की थाती रही बस
मन कहीं पर खो गया तो ?
क्या हमें इन करवटों का,
ज़रा भी आभास होगा ?
अगर सचमुच बंट गए तो
हर महीने ख़त लिखूँगा,
किस तरह से ढो रहा हूँ
प्राण का पर्वत लिखूँगा ।
क्या मुझे उत्तर मिलेगा ?
क्या तुम्हे अवकाश होगा ?
सोचते होंगे अचानक
बात कैसी कर रहा हूँ ?
बात डरने की बहुत है
इसलिए तो डर रहा हूँ ।
डूबकर पढ़ना समय को
तब तुम्हें अहसास होगा ।।
कह रहा मन किन्तु फिर से
सामने हम खड़े होंगे,
हम ज़रा घटकर मिलेंगे
या कि कद में बड़े होंगे ।
फिर अगर हम मिल सके तो
क्या तुम्हें विश्वास होगा ?
फिर मिलेंगे तो समय का
देवता हमसे कहेगा,
हम पथिक होंगे विजन के
पास अपने क्या रहेगा ?
एक मुट्ठी धूप होगी
बाँह भर आकाश होगा ।।
