अम्मा पत्थर तोड रही है
अम्मा पत्थर तोड रही है
अम्मा पत्थर तोड रही है I
देह पसीने से भीगी पर
फिर भी चमक निराली लेकर,
रोज लौटती है बच्चो तक
रोटी लेकर, थाली लेकर ।
टूट गयी है भीतर से पर,
तिनका तिनका जोड़ रही है I
धरती हुई आग की भट्टी
दोपहरी की तेज़ धूप है,
पर अम्मा की काया जैसे
तपकर निखरा हुआ रूप है ।
अपनी साध साधती अम्मा
मौसम को झिंझोड़ रही है I
अम्मा को मौसम की चिंता
नए समय की फ़िक्र अलग है,
पर माँ घर-आँगन से रखती
इस चिंता का ज़िक्र,अलग है ।
हंसकर पल भर में ही अम्मा
सारी फ़िक्र निचोड़ रही है I
पर अम्मा को थोड़ा दुख है
मन में अब भी कसक बची है,
सोच रही माँ नए समय ने
कैसी नयी बिसात रची है ?
भोली नई-नई सी नस्लें
लीक पुरानी छोड़ रही है I
अम्मा घर की रानी जैसी
बच्चो की गुड़-धानी जैसी,
मुस्कानों, खिलखिलाहटों की -
उजली हुई कहानी जैसी ।
आँचल के झोंके से अम्मा
वेग हवा के मोड़ रही है I