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मेरी माँ कहती है

मेरी माँ कहती है

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मेरी माँ कहती है,

मेरी ज़िंदगी एक,

किताब की तरह खुली है,

पर मुझे लगता है,

मैं शायद इस किताब,

की भाषा से अनजान हूँ।


वो मुझे खुद से भी,

ज्यादा समझने की बात,

यूँ हलके में बोल जाती हैं,

और मैं सोचती रह जाती हूँ

क्यूँ आज भी मैं मेरे,

एहसास नहीं समझ पाती हूँ ?


वो सोचती हैं,

मैं बिलकुल सीधी,

एकदम नादान हूँ,

पर शायद मैं अपने ही,

ख्यालों में उलझी,

थोड़ी हैरान थोड़ी परेशान हूँ।


वो मानती हैं,

मेरा जिम्मेदारियों से,

भागना मेरा बचपना है,

पर मेरा बचपन गुज़रे,

कितना वक़्त हुआ,

ये तो मैं खुद भी,

याद नहीं कर पाती हूँ ।


वो सोचती हैं,

अनजान रिश्तों में बंधने से पहले,

मैं सीख लूँ ज़िंदगी क्या है,

पर मैं तो जाने पहचाने बंधनों को भी,

समेट कर नहीं रख पाती हूँ।


मेरी माँ कहती हैं,

एक चिड़िया हूँ मैं,

और मुझे उड़ कर चले जाना है,

पर मैं तो पंख फैला कर,

उड़ने से पहले ही सहम जाती हूँ।


वो सोचती हैं,

उनकी बेटी हौसलों की पक्की है,

पर मैं तो रास्तों पर,

गिर जाने के डर से

आगे ही नहीं बढ़ पाती हूँ।


उन्हें मालूम है,

उन ऊँची तूफानी लहरों को,

पार करना अभी बाकी है,

पर कहीं अपनों का,

साथ न मिला तो,

ये सोच कर पहले ही,

हिचक जाती हूँ।


उन्हें लगता है,

खुश हूँ क्योंकि एक,

भरा पूरा परिवार है,

पर ना जाने क्यों,

सबके होने के बाद भी,

खुद को अकेला,

महसूस कर जाती हूँ ?


मेरी माँ कहती हैं,

मैं एक खुली किताब हूँ,

फिर क्यों मैं खुद को ही,

नहीं समझ पाती हूँ ?


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