एक कसक उठती है दिल में
एक कसक उठती है दिल में
आज भी एक कसक उठती है,
दिल के किसी कोने में,
बचपन का वो पल,
ठहर जाता है आँखों में,
जब मैं भी आपका,
हाथ थामना चाहती थी,
गोदी में आपके खेलना चाहती थी।
यूँ तो माँ ने सारा प्यार दिया,
पर दिल तो बच्चा था,
जो दूसरों को देखकर,
मचल उठता था।
हम भी चाहते थे वो,
"पापा" लफ्ज़ दोहराना,
आखिर पापा हमारे पास,
क्यों नहीं ये जानना
उम्र कच्ची थी,
समझ भी कम थी,
लड़ बैठते थे कभी उस माँ से,
जो खुद आपके दिए,
गम से बिखरी थी।
उन नासमझी के दिनों में,
एक कमी का एहसास था,
क्योंकि दिल नादान था,
और आप की बेरुखी से अनजान था।
उस बचपने में तो,
माँ ने समझा लिया था,
पापा आयेंगे ढेर सारे खिलौने लायेंगे,
हर दिन चौखट पर राह तकते थे,
और कसम से, खिलौने का नहीं,
आपका इंतज़ार करते थे।
मासूमियत भरा प्यार था आपसे,
फरमाइशें करने का,
हक़ था आपसे,
रो दिया करते थे,
हम भी औरो को देखकर,
इस आस में की आँसू तो,
पोंछ ही देंगे आप आकर।
अब समझ तो,
दस्तक देने लगी थी,
दुनिया वालों के प्यार में,
रहम भी दिखने लगी थी,
और वो खिलौनों की,
कहानियाँ भी झूठी लगने लगी थी,
क्योंकि अब सच्चाई जो,
मैं समझने लगी थी।
जो मासूम पूरे दिल से,
आपको चाहा करती थी,
उसको अब इल्म हो चुका था,
की आप उसके सपनों वाले,
पापा थे ही नहीं,
छोड़ दिया था उस,
बच्ची का हाथ आपने,
जब वो थी अपनी माँ के कोख़ में।
मेरा तो सिर्फ बचपना,
अधूरा रह गया,
पर माँ का तो सब छिन गया था,
लड़ती रही अकेली इस,
दुनिया से वो मेरे लिए,
क्योंकि ये हौसला था माँ का,
जो फिर जीत गया था,
और एक बाप का दिल था,
जो फिर हार गया था।