बदलता हुआ ज़माना !
बदलता हुआ ज़माना !
हम भी चले थे खुद को बदलने,
जब देखा इस ज़माने को पल-पल में बदलते,
ठान लिया की इस दिल को पत्थर का कर लेंगे,
पर मोम ठहरा ये दिल जो फिर लगा पिघलने।
सोचा था की कुछ इस कदर बदल लेंगे खुद को,
ना ही किसी की ख़ुशी से वास्ता होगा और ना ही ग़म से,
पर भूल गए मासूमियत इस जिगर की,
जो तड़प उठा फिर देख बेबसी दूसरों की।
दिमाग का जोर था, इधर दिल मजबूर था,
दिल को काला कहने वाले लोग,
जान लो ये सब दिमाग का कसूर था,
आख़िर दुत्कारते हुए आवाज़ निकल ही पड़ी उस जिस्म से,
जिसको खोखला कर रही थी रंगत ये ज़माने की।
तू मत बन बेपरवाह यूँ औरों की तरह,
दुनिया में तो भीड़ है इन लोगों की बेतहाशा,
तू रहे अपने जैसा, भले कहे दुनिया तुझे सिरफिरा,
क्योंकि आज भी जरुरत है तेरे जैसों की।
वक्त का तकाज़ा और दिल का कहना मान लिया फिर हमने,
ना बदला खुद को जरा पर समझ गए अब लोगों का फ़साना,
आज भी बेफिक्र होकर हँस दिया करते है हम,
क्योंकि गम की नुमाइश देखने को बेचैन है ये ज़माना।
जिस अपनेपन की तलाश में भटकते थे हम,
वो ना मिला हमें अपनों से, ना ही ग़ैरों से,
हक़ीक़त से वाक़िफ़ जरूर हो गए हम,
लोगों की बेपरवाही का ही आलम था ये,
की अब खुशियाँ भी खुद के भीतर ही ढूंढते हैं हम।।