ढाई आखर बाबूजी
ढाई आखर बाबूजी
कितना कुछ सिखलाते रहते
मुझको अक्सर बाबूजी।
बड़े जतन से ताना-बाना
बुनते वे घर का,
सदा साधते रहे संतुलन
भीतर-बाहर का।
वे इतने घर के हो जाते
लगते खुद "घर" बाबूजी।
अनगढ़ राहें जाने कैसे,
खुद समतल हो जाती है,
तपती हुई धूप में सड़कें,
ज्यों मखमल हो जाती है।
चुनते रहते मेरे पथ के -
कंकड़-पत्थर बाबूजी।
कभी कबीरा से अक्खड़ तो,
कभी सूर से निर्मल भी,
कभी आग के ताप सरीखे -
तो निर्झर की कल-कल भी
अंतर्मन में सदा संजोए -
ढाई-आखर बाबूजी।
चलती आठों याम दिवस में,
वही प्रार्थना बाबूजी,
जिसने हर इक डगर नाप ली,
वही साधना बाबूजी।
सारा खारापन सह लेते
ऐसे सागर बाबूजी।
