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Satyendra Gupta

Abstract

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Satyendra Gupta

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जालिम शहरी

जालिम शहरी

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जालिम है शहर के लोग

जो पहचानकर भी अनजान बन जाते है


कहने के तो है अपने

पर न जाने पराए सा व्यवहार कर जाते है


कई डिग्रियों के है मालिक मगर

अनपढ़ जैसा डगर क्यू बना जाते है


पैसे की कमी नहीं उनको

पर न जाने कैसे कर्जदार बन जाते है


जब आयेंगे हमारे गांव 

अपना जैसा रिश्तेदार बन जाते है


जब जाओ उनके यहां

समय की कमी बताकर गायब हो जाते है


हमे नाश्ता करने की आदत है सुबह

वो चाय पीकर दोपहर तक टिक जाते है


हम तो घी, दूध ,दही से मजबूत बनते

वो तो प्रोटीन के डब्बों से मश्लस बनाते है


हम माता पिता की सेवा करते है खूब

पर न जाने क्यों वो बृद्धा आश्रम की राह दिखाते है


जब आ जाए करोड़ों जैसे बीमारी

तब उन्हें अपनी गांव की याद आते है।


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