शरद की रात, पर्दे से निकल कर
शरद की रात, पर्दे से निकल कर
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शरद की रात, पर्दे से निकल कर
चमकती चाँदनी के साथ मिलकर
मेरे हर लफ़्ज के मानी बदल कर
मेरे ही साथ फिर पानी में चलकर
तुम अपनी ऊँगलियों की हरकतों से
बुनो दुनिया नई ,जिसमें कि जानां
हमारा ख़्वाब ही बस हो हकीक़त
रंग नीला, हरा ,पीला ,गुलाबी
देख इक दूसरे को मुस्कुराये
पड़े जब रोशनी आँचल से छनकर
रंग ये और खिलकर सामने आएँ
और सारे रंग लिपट एक दूसरे से
मोहब्बत को उभारें कैनवस पर
बस इतना ख्वाब ही मैं कुछ दिनों से
मुसलसल देखता ही जा रहा हूँ
शरद की रात फिर से आ गई है
और अब बाकी नहीं कोई बहाना
सो तुम्हारी इक झलक की जूस्तजू में
मैं शिकारे पे लिए पशमीना चादर
तुम्हारा आज शब रस्ता तकूँगा