STORYMIRROR

बंद कमरा

बंद कमरा

1 min
26.9K


काश उन कुर्बानियों को कोई समझ पाता

वो जात धर्म से थी कितनी बड़ी कोई तो बता पाता

सैकड़ों आपसी रंजिशें फिर कैसा उनका सम्मान

हर रोज़ हो रही पीड़ा, वो जता सके

जान कोई उन रूहो को दे आता

काश उन कुर्बानियों को कोई समझ पाता।

उन छोटी देश की गलियों को जब कोई

किसी धर्म के नाम से पुकारता

ऊंच नीच का भेद कर, पानी भी न पी पाता

ऐसे इंसानों को काश कोई उन शहीदों की

आत्मचरित्र की किताबें भेंट कर आता

देश की किताबों में, उन शहीदों को

आतंकवादी लिखने वालो की कोई स्याही खत्म कर पाता

काश उन कुर्बानियो को कोई समझ पाता।

साल में बस एक दिन नहीं, हर रोज़ उनका जिक्र कोई कर जाता

आज की युवा पीढ़ी को वो मार्ग दिखा पाता

किस्सों से रूबरू करा, जीने का असली मकसद बताता

वो थी असल संताने देश की, उनके नाम की भी

कहीं उद्घोषणा कर जाता

काश कोई उन कुर्बानियों को समझ पाता।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract