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बहुत ज़्यादा बोलते हो

बहुत ज़्यादा बोलते हो

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तुम बड़े चुपचाप रहकर

बहुत ज़्यादा बोलते हो ।।


मौन हो तुम मगर तुम में

एक भाषा जी रही है,

तौलती है उलझनों को

उधडनों को सी रही है ।


कनखियों से देखते हो,

खिड़कियाँ कम खोलते हो ।।


मौन रहकर भी सदा तुम

बोलते अधिकार से हो,

बंद हो तुम सीप जैसे

तुम खुले अखबार से हो ।


शब्द तुमको तौलते है,

शब्द को तुम तौलते हो ।।


वर्णमाला में नहीं पर

तुम विधानों में बसे हो,

कथ्य में उतने नहीं -

जितने विरामों में बसे हो ।


एक पल ठहराव लाकर,

ज्यों कि मिसरी घोलते हो ।।


इस तरह चुपचाप रहना

भीड़ में खोना नहीं है,

ज्यों नयन का मूँद लेना

नींद में सोना नहीं है ।


अनवरत मन की नदी में

तुम लहर से डोलते हो




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