अनुचिन्तन
अनुचिन्तन
सतत साधना के पथ ऊँचे
जोगाराम का मारग बांका
भरम जाल की मीठी गठरी
शब्द शब्द में अर्थ निहित हो
ऐसी भाषा ऐसे चिन्तन
अनुचिन्तन की परिभाषा को अब
बोलों कैसे समझाऊ
बड़े विचारक धरम अनुष्ठित
हम तुम कौरव की जाती से
हाथ लगे तो डूबे गगरी
छांह पड़े तो जले मधुरता
चौराहे की रीत भींत है
फिर भी गर धर्मीं बाड़ों पर
सांझ उकेरे मेरी कविता,
फिर कविता के अभिनन्दन में
अदद आवरण अनुचिंतन को
बोलो कैसे समझाऊ
क्षण मात्र जगत तुम मौन रहो
निःस्तब्ध पड़ी यह धरती कहती,
भूगर्भ अधुरा जन्मान्तर से
सीमा लाँघ गए बादल हैं
कंधे पर से झूल रहे हैं
पट-परिधान लतापत्रांकित
कौन व्यथा का खेद करे अब कौन तरल आवेग धरे
रोग अविद्या, शूल बनें तब स्वप्न धरा पर कौन तरे<
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उतरासंग एकांत लिए इंदर से कैसे बतलाऊ
नभ में उलटे झूल रहे एरावत को क्या दिखलाऊ
पोखर तल जंगल पथ थल के
सीमान्त सदन में क्या गाऊं
अडिग अटल अविकंप मनस में
भूचाल उठाते अनुचिंतन को
बोलो कैसे समझाऊ ||
शीत धूप से धूप ताप से ताप
ओस से ओस भाप से
कहती ये वरदान रहा
दान धरम से दोष मुक्त से
मुक्त धरा से पारायण से
कहती है दरबान रहा
मगर खण्डहरों के कानों तक
कैसे धूप उजाला जाये
आधी धुली चाँदनी रोये
अभिशाप कहाँ तक टाला जाये
नव धाम से निकली ओज किरण के
उजले निखरे पंख कहेंगे
सहमी-सहमी सदियों को मैं
दूर वहां इक लाल दमकता
सूरज कैसे दिखलाऊ
मेरे मन के अनुचिंतन को
बोलो कैसे समझाऊ ||
अनुचिन्तन की परिभाषा को अब
बोलों कैसे समझाऊ