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ritesh deo

Abstract

4  

ritesh deo

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कुछ कहता है

कुछ कहता है

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न न न बहुत कुछ कहता है

मेरे घर की हर दीवार हर कोना कोना

मुझ से कुछ न कुछ जरुर कहता है

मेरी रसोई मेरी पक्की सहेली जिसके संग मेरा ज्यादा वक्त गुजरता है

मुझसे अच्छे अच्छे पकवान बनाने को कहती है


मेरा स्वागत कक्ष कुछ कम कम सी बातें करता है

जब कोई मेहमान मिलने जुलने वाले आते हैं

तभी उनकी खातिरदारी के लिए कहता है

मेरी बेटी प्यारी सी गुडिया का कमरा थोडा़ नटखट है


कभी मुझे गुस्सा तो कभी प्यार दिखलाता है

पर आजकल की हलचल से वही तो मुझे रुबरु कराता है

मेरी बालकनी उसमें मेरे पेड़ पौधे मेरे गमले

मुझसे बातें करते हैं मुझे एक ताजगी सी महसूस कराते हैं


रंगबिरंगे फूल उनकी खुशबू से उनपर मंडराती तितलियों से

गौरेया के छोटे से घोसलें से इन सब से बातें कर के मैं जीवंत हो उठती हूँ

जब में घर के काम काज से फारिग होती हूँ तो

मुझे मेरा कमरा आराम फरमाने को बुलाता है


वहां पर आराम कर मेरी पूरी थकान छुमंतर हो जाती है

और हां जब मैं कुछ वक्त अपने लिए निकालती हूँ

तो मेरे घर का वो प्यारा सा हिस्सा जहां पर मेरा झूला मुझे पुकारता है

उसपर बैठ मैं अपने फुरसत के पल गुजारती हूँ


जहां बैठकर मैं अभी यह प्यारी सी कविता लिख रही हूँ

यूं ही नहीं कहती मैं कि मेरा घर कुछ कहता है

न न न बहुत कुछ कहता है

मेरे घर की हर दीवार हर कोना कोना

मुझसे कुछ न कुछ जरुर कहता है।।


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