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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Inspirational

गांव और शहर

गांव और शहर

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गांव भी शहरों की तरह झूमने लगे हैं 

लोग नशे में टुन्न होकर घूमने लगे हैं 

जीवन मूल्यों की अपेक्षा पैसे को तरजीह देने लगे हैं 

बेरुखी के बबूल के तले सुकून तलाश करने में लगे हैं 


स्वार्थ का चारों ओर बोलबाला हो गया है 

सबका जमीर न जाने कहां जाकर सो गया है 

दावानल की तरह पीर बढती ही जा रही है 

अपराधों की जंजीर गले पर कसती जा रही है 


धूर्तता मक्कारी को "स्मार्टनेस" कहा जाने लगा है 

विवाहेत्तर संबंध बनाने में खूब मजा आने लगा है 

चेहरे पे मुखौटे लगाकर घूम रहे हैं लोग 

विश्वास का कत्ल करके झूम रहे हैं लोग 


लाज चुल्लू भर पानी में डूबकर मर गई है 

बेशर्मी, बेहयाई की टोकरी अब पूरी भर गई है 

शहर और गांव में कोई फर्क नजर नहीं आता है 

भीड़ में भी इंसान खुद को अकेला ही पाता है 


आगे निकलने की अंधी दौड़ में पिस रहे हैं लोग 

बेवजह तनाव में जी कर रोगों को पाल रहे हैं लोग 

न शुद्ध खानपान है और न शुद्ध आचरण 

अपने कर्मों पर डाल रखा है सभी ने आवरण 


ना भगवान पर श्रद्धा है और ना कानून का डर 

दारू की दुकान के रूप में बने हुए हैं पाप के घर 

फूहड़ता और नग्नता का नंगा नाच हो रहा है 

अपने ही कंधों पर अपना ही बोझ ढो रहे हैं 


नये जमाने का चलन बड़ा ही निराला है 

झूठ, फरेब ने सच्चाई को घर से निकाला है 

कोई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है 

जो अभी भी इज्ज़तदार है, लाचार वही है।


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