STORYMIRROR

ritesh deo

Abstract

4  

ritesh deo

Abstract

मैं हर महीने भीग जाती हूँ

मैं हर महीने भीग जाती हूँ

2 mins
402

कुदरत के नियम को मैं अपनाती हूँ

हर बार दर्द में और ज़्यादा जीना सीख जाती हूँ

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


लाल रंग का मेरी ज़िंदगी से गहरा नाता है

ये लाल आये तो मुझे दर्द देके जाता है।

ये लाल ना आये तो मेरे प्रतिष्ठा पे भी सवाल आता है

जो भी हो ये लाल मुझे लाल की उम्मीदें देके जाता है।

मैं गीले में भी दूसरों को सूखे का अहसास करवाती हूँ।

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


रक्त-रंजित हो जाते हैँ मेरे वस्त्र,

बिना लड़ाई बिना शस्त्र।

फीर भी मैं कुदरत से ना विरोध जताती हूँ।

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


मुझे दिखाते हो आँखें लाल?

सुनो तुमसे ज़्यादा मैं हूँ लाल।

मेरे लाल होने पर कई बार तुम लाल-लाल हो जाते हो।

शायद मेरे लाल होने की चिंता नहीँ तुम्हे,

दरअसल तुम तुम्हारे दो पल के सुकूँ पे मर जाते हो,

फ़िर भी तुम्हारा काम निकल देती हूँ जैसे तैसे,

हर दर्द को मैं अपनाती हूँ।

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


अंदर...

चिपचिप-खिजखिज, ख़ारिश, खुजली, जलन,

दर्द, गीलापन, गलन।

बाहर से ख़ुद को तुम्हे और माहौल को ठीक रखने के लिए...

मुस्कुराहट, खिलखिलाहट, खनखनाहट, छन छन

क्या क्या नहीँ कर जाती हूँ?

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


इस लाल रंग का मुझसे है गहरा नाता,

सिंदूर, लाली, लिप्सिटक और ये, सब मेरे हिस्से ही आता।

काश मर्द को ये एक बार आता,

तब शायद उसे एक नारी के दर्द का पता चल पाता।

कई बार तो दर्द में मैं जीते जी ही मर जाती हूँ।

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


मुझे देवी कहो ना कहो,

पहले मुझे ठीक से नारी तो मानलो।

मुझे मेरे दर्द की परवाह नहीँ होगी,

बस मेरे दर्द को जानलो।

कहे "सुधीरा" मैं तुम्हारे काले-सफेद हर रंग को गले लगाती हूँ।

मैं हर महीने भीग जाती हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract