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मिली साहा

Abstract

4.8  

मिली साहा

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पिंजरा

पिंजरा

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493


एक नगर में रहती थी एक महिला, बड़ी ही उदार,

सभी जीवो के प्रति हृदय में, बहे करूणा की धार,

एक दिन पिंजरे में देखा एक तोते को फड़फड़ाता,

देख उस महिला को वो मासूम, करने लगा पुकार।


सोचने लगी मन ही मन लगता है ये पंछी है बीमार,

दौड़ी आई देखने सुन उस मासूम की करुण पुकार,

देखते ही समझ जाती है वो महिला तोते की व्यथा,

सहलाती है उसके माथे को, करती है उसको प्यार।


दौड़कर फिर लाती है उसके लिए कुछ दाना पानी,

दाना खाकर तोता सुनाता दुखभरी अपनी कहानी,

कैद हूँ मैं यहांँ इस पिंजरे में ज़ख्म भी मिले हज़ार,

बताता हूंँ सबकुछ कैसे आज़ादी मुझसे मेरी छीनी।


उड़ता था मैं उन्मुक्त गगन में पंख अपने पसार कर,

एक इंसान ने मुझको पकड़ा दाने का लालच देकर,

नादान था मैं समझ न पाया उसके काले इरादों को,

दबोच मेरे पंखों को कैद कर दिया पिंजरे में लाकर।


छीनकर मुझसे मेरी आज़ादी पिंजरा उसने दे दिया,

फड़फड़ाया बहुत मैं, पंखों को लहूलुहान कर दिया,

किन्तु उस निर्दयी को मुझ पर तनिक दया ना आई,

ना पानी दिया उसने पीने को और न दाना ही दिया।


हम बेजुबान जीवो के नसीब में, क्यों आता पिंजरा,

तुम लगी मुझको भली मानुष इसलिए तुम्हें पुकारा,

खोलकर पिंजरा लौटा दो मुझको मेरा वो आसमान,

मेरे वजूद की पहचान है जो मेरे मन को लगे प्यारा।


उसकी करुण कथा सुन महिला का दिल भर आया,

झटपट पिंजरा खोल उसने, तोते को आज़ाद किया,

उड़ते -उड़ते तोता कानों में भर गया, कुछ मीठे स्वर,

मुस्कुराई महिला ऐसे, जैसे दौलत है कुछ पा लिया।


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