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Satyendra Gupta

Abstract

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Satyendra Gupta

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रिश्तों का सफर

रिश्तों का सफर

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जीवन के सफर में लोग चलते है

कुछ रोते है तो कुछ मुस्कुराते है

कुछ चलते है तो कुछ रुक जाते है

कुछ सपने देखते रह जाते हैं 

तो कुछ सपने साकार कर जाते है

ना जाने ये जीवन कहां लेकर चले जाते है।


अजीब विडंबना है जीवन की

अजीब खेल है रिश्तों की

अजीब मेल है अनजाने रिश्तों की

कोई अपना होकर पराए बन जाते है

कोई पराया होकर भी अपना बन जाते है

ना जाने ये जीवन कहां लेकर चले जाते है।


बचपन में भाईयो का प्यार कितना होता है

एक को चोट लगे दूसरे भाई को दर्द होता है

एक भाई की जरूरत को दूसरा भाई पूरा कर देता है

साथ में खेलना, सोना , खाना - पीना होता है

शादी के बाद सारा एहसास तो मर सा जाता है

भाईयो का प्यार कूड़ेदान में खो जाता है

अपनी अपनी जरूरतों को खुद पूरी करने पड़ते है

ना जाने ये जीवन कहां लेकर चले जाते है।


रिश्ते तो न जाने कहां खो गए है

प्यार अब कड़वाहट में घुल गए है

एहसास अब न जाने कहां गुम हो गए है

रिश्ते अब पत्नी और बच्चे तक सिमट गए है

एक दूसरे की फिक्र नहीं होती किसी को

हाल चाल पूछकर केवल भाव समझते है

ना जाने ये जीवन कहां लेकर चले जाते है।


बड़े से घर को छोटा होते देखा है

बड़े से जमीन को छोटा होते देखा है

अपनो के मन को खोटा होते देखा है

जरूरत पड़ने पे पीछे हटते देखा है

कितना बदल गया परिवार और रिश्ता हमारा

अपनो को पराया होते देखा है

बड़े परिवार अब यूं सिकुड़ते चले जाते है

ना जाने ये जीवन कहां लेकर चले जाते है

ना जाने ये जीवन कहां लेकर चले जाते है।


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