भूख
भूख
भूख एक ऐसा शब्द है जिसकी एक निश्चित परिभाषा दे पाना थोड़ा कठिन है,
पर इसकी पूर्ति के लिए इंसान अनेक प्रकार का जतन करता है।
इस में वो निम्न स्तर के भी कार्यो में संलग्न हो जाते है,
जैसे लोगों द्वारा निष्काशित कूड़े पर कुछ लोगो का जीविका चलती है।
रोटी, कपड़ा, मकान में से केवल रोटी का ही जतन न के बराबर हो पाता है।
बाकि आधारभूत बस्तुओ का जतन तो स्वप्न के रूप में परिकल्पित होता है।
यह कविता इसी उधेड़-बुन का एक छोटी सी रचना है, जो निम्नलिखित है।
वो हाथों में कूड़े के थैले का भार
जिसका तन था अभी सु-कुमार
धूमिल चिर चक्षु में आश्रावित नीर
वह पथ पर पग का कुंज
कुछ धन की अभिलाषा
क्षुधावाश की उन्मुक्त आशा
वो हताश वो निराश कुछ
बोतल हाथ में कुछ थैले के पास में
मिल जाये कुछ धन जिससे खरीद लेगा वो अन्य
निद्रा का हो जब आगमन तो धरा बने उसका शयन
कब वर्षा कब सरद कब ग्रीष्म के धुप की तपन
सब सहता पर मृदुभाषी सा रहता
वो हाथों में कूड़े का थैला
वो तन पे चिर मटमैला
फिर भी आश लिये चलता है
कूड़े को साथ लिए चलता है।
कहा से आते है ऐसे लोग जो ये निम्न कोटि का कार्य करने पर मजबूर होते है।
इस आधुनिक युग में भी निम्न कोटि का कार्य इंसानो द्वारा प्रत्यछ रूप से किया जाता है।
और उन्हें समाज के द्वारा घृणा का पात्र भी बनना पड़ता है।
हमारे समाज को इसे सुधारने का प्रयास करना चाहिये।
