वह कब्रिस्तान का भूत
वह कब्रिस्तान का भूत
जंगल के
बूढ़े काका
सियार ने
पहाड़ी की चोटी पर चढ़कर
आसमान की तरफ सिर उठाकर
अपनी आंखों को बंद करके
मुंह फाड़कर
शाम के डूबते हुए सूरज के
गोले जैसी गुफा में ही
जैसे खुद को कहीं स्थापित करके
जोरों से आवाज लगाई
अपने अनुभव के आधार पर
सबको चेताया
आग्रह किया कि
अब शाम हो चुकी
रात होने को है
सुबह का
दिन भर जो चला खेल
उसे खेलना अब बंद करो
रुक जाओ
बस जहां हो वहीं थम जाओ
जल्द से जल्द सब अब
अपने अपने घरों की तरफ
वापिस लौट जाओ
ऐसा निवेदन
यह बूढ़े काका
एक लंबे समय से करते आ
रहे थे
उनकी भाषा को
जंगल के
सब जानवर भली भांति समझते थे
और वह क्या कहना चाह रहे होते थे
यह भी
शाम होते ही
सबके दिलों में एक भय
समाने लगता था
चिड़ियों का झुंड भी
आसमान में ही
आनन फानन में
अपने अपने घरों का
रास्ता तलाश कर वापिस
जाने लगता था
हर शाम
जंगल में खौफ का
मंजर
डूबते सूरज के साथ
उपजता था
बूढ़े काका
अपनी आंखों देखी
कहानी सबको सुनाते थे
सब उनकी कही हुई बात
मानते थे
उनका कहना था कि
कुछ बरस पहले
एक आदमी जंगल में
रास्ता भटक गया था
एक शेरों के झुंड ने
उस पर हमला बोल दिया और
उसे अपना शिकार
बना लिया था
उस निहत्थे अकेले को बेरहमी से मार डाला था
उसके शरीर की बोटी बोटी
नोंचकर
उसके मांस को अपना
आहार बना डाला था
उस मृतक की आत्मा जंगल से
सटे कब्रिस्तान में
आज भी भटकती है
हर रात
कब्रिस्तान की ही
किसी कब्र के बीच से
निकलकर
यहां वहां भटकती है
तलाशता है
वह कब्रिस्तान का भूत
आज भी अपने कातिलों को
खून की प्यासी उसकी
आत्मा
किसी मासूम को
अपना शिकार न बना ले
यही डर सताता है
बूढ़े काका को
उनके कहे एक एक शब्द को
सब मानते सच
र्आंख बंद करते
उन पर सब भरोसा
तभी तो किसी का हुआ
आज तक न बाल बांका
और सब हंसते खेलते
उनकी छत्रछाया में है
अभी तलक जिंदा।