आखेट
आखेट
अमावस की
हर रात्रि के
दूसरे पहर में
उस बियावान के
खंडहर महल में
अपनी पाषाण शैया से
वो चिर युवा वधु
जाग जाती है
अपनी उस चिर निद्रा से
जो उसे हमेशा के लिए
सुला देना चाहती है।
उसे याद नहीं है
कब वो
इस चिर निद्रा में
सोइ थी?
क्यों सोइ थी?
लेकिन
अमावस की हर रात्रि के
दूसरे पहर में
वो जाग जाती है
अपनी उस चिर निद्रा से
जिसमे वो सोइ थी
सदियों पहले
या उससे भी पहले।
उसे याद नहीं है
अपना नाम
अपना पता
लेकिन याद है
हर अमावस की रात्रि
के दूसरे पहर में उठ जाना
और निकल जाना
आखेट पर।
उसका आखेट
हो जाते है वो युवक
जो उसके चिर युवा वधु रूप पर
मोहित हो जाते है
और उसका आखेट करने को
आतुर हो जाते है
परन्तु स्वयं उसका आखेट
हो जाते है ।
उसका आखेट
हो जाते है वो मांत्रिक
जो उसे बांध लेना चाहते है
अपने मंत्रो से
सदैव के लिए
लेकिन बांध नहीं पाते है
और स्वयं आखेटित हो जाते है ।
अपने हर आखेट के बाद
वो उस बियावान को
भयाक्रांत कर देती है
अपने रुग्ण विलाप से
जो उसके आखेट में निकले
युवको को मांत्रिको को
सदैव के लिए
कैद कर देता है
उस पाषाण शिला में
जो शायिका है उस
चिर युवा वधु की
जो अमावस की रात्रि के
अपने आखेट के बाद
सो जाती है उस पाषाण शायिका पर
जाग जाने के लिए
अगली अमवास के
दूसरे पहर में
अपने आखेट पर
निकल जाने के लिए।