आख़िर क्यूँ
आख़िर क्यूँ
प्यारा ये मंज़र
प्यारा ये नज़ारा,
रातों को निकली मैं
ढूँढने अपना साथी,
वो नादिया वो किनाराl
दिन इंसानों का
रात हम जैसों की,
सुनसान एक सड़क
निकली मैं परछाईं बन,
ढूँढ रही थी
मैं घूम रही थीl
समक्ष दिखा वो
पीछे चल रही थी,
जो कभी था
संगी मेरा प्यारा,
आज काँप रहा वो
महसूस कर मुझे,
हाँफ रहा वो
ज़िंदगी जी उसके साथ
मृत्यु भी नशीली है,
उसी के साथ मुझे जीनी हैl
हाथ फैला
कालिख पोत
बैठा गया वो,
थम से नज़रें गड़ा
डर रहा वो,
आती उसके समक्ष
सफ़ेद रौशनी मेरी रूह से,
जो कभी अंग-संग को तरसता था,
आज छोड़ देने की भीख है माँग रहा
भाग रहा दूर मुझसे,
कीचड़ में सड़क में
वो नाली-उपवन में,
भाग रहा वो सोनिया मुझसे
आख़िर क्यूँ….?
आख़िर क्यूँ…..??