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युद्ध

युद्ध

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वो तल के छोर से उठती आवाज़े

विरह की वेदना से

कराहती आवाज़े

डर से थर्रायी

वो कंपकंपाती आवाज़े

मासूम से चेहरे की

गुमसुम आवाज़े

सवेंदना से भरी

वो अंतरित आवाज़े

ना जाने कब सुनेगा इन्सान

ना जाने कब थमेगा इंसान !


चीखती - चिल्लाती

वो मातम की आवाज़े

दफन करती

युद्ध के गोला बारूदो की आवाज़े,

वो खून से सना

ज़मीं और आसमान

ना जाने कब सुनेगा इंसान

न जाने कब थमेगा ये इंसान !


गलियों और चौक चौराहों में

सुने आँगन के बेलाओं में

विधवा होते बेवाओं में

वो टूटती चूड़ी की खनकान

ना जाने कब सुनेगा इंसान

न जाने कब थमेगा ये इंसान !


वो बहते बूढ़े माँ-बाप के आँँसू

जिनका बेटा था सरहद का जवान

है हर एक बूंद आँँसू की

खून समान

ना जाने कब सुनेगा इंसान

न जाने कब थमेगा ये इंसान !



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