जग का छोर
जग का छोर
उठा एक पत्थर अवनी से
फेंको फिर अम्बर के पट पर
तोड़ो, जिससे देख सकूँ मैं
क्या है वह उस पार गगन के ?
इतने बरसों से जो जाते
लोग वहाँ ये मार्ग पकड़ कर
आखिर जग का छोर कहाँ है ?
पर हाय ! गिरे पाषाण आस के
मन के कोने से सागर में
चहुँदिशि से उत्ताल तरंगे
आई उमड़ घुमड़ कर मुझतक
बन अधीर, कामुकता से भर
लिया नेह भर चँदा का फिर
चूमे नभ को यँहा वँहा से
पर न बुझी वो प्यास अनोखी
फिर पूछे वापस धरती से
क्षितिज अनोखा, छोर कहाँ है ?
छिपी हुई जो अंतर्मन में
कितने बरसों की वह आशा
जिसे सजा आँखों में चलता
एक बूढ़ा ले किरण की कथा
चला खोजता व उस लौ को
जो बुझ गया अंत में तम से
उसका वह अरमान आखरी
पूछ रहा फिर उसी जगत से
बता कल्पना - छोर कहाँ है
जग इक्षा का ओर कहाँ है।