गर्भिणी
गर्भिणी
वो तिल तिल, तन मन से हार दौङती,
गर्भिणी ! चिंतातुर सी, बढता उदर लिये !
झेलती चुभते शूल भरे अपनों के ताने,
भोर प्रथम पहर उठती ढेरों फिकर लिये !!
एक बच्चा हाथ संभाले, एक कांख दबाये
कुदकती यूं अपनो की चिंता को लिये !
तरा ऊपर तीसरे पर रखती पूरी आंख,
जो चिंघता पीछे साङी का पल्लू लिये !
झिल्ली लिपटे मांस लोथङे की चेतना,
उदर को दुलारती सैकङो आशीषें दिये !!
दिन ब दिन फैली हुयी परिधि में संवरती,
विरूप गोलाई में क्षितिज का सूरज लिये !
नये जीवन को स्वयं रक्त से निर्माण करती,
फूले पेट की चौकसी में नींदे कुर्बान किये !
धमनियों शिराओं से जीवन रस पिलाती,
नवांग्तुक के लिये संस्कारों का लहू लिये !!
फुर्सत क्षणों मे ख्यालों के धागे को बुनती,
थकन से उनींदी सूजी आंखे हाथ लिये !
हदयस्पन्दन, ब्रह्माड से आकार को बढाती,
संशय के मकङजालों की जकङन लिये !
तीनों आत्माजाओं के
मासूम चेहरे देखती,
कहां जायेगी ?
गर फिर बेटी हुई,
उसको लिये...!!
