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Dr. Nisha Mathur

Drama

5.0  

Dr. Nisha Mathur

Drama

गर्भिणी

गर्भिणी

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वो तिल तिल, तन मन से हार दौङती,

गर्भिणी ! चिंतातुर सी, बढता उदर लिये !

झेलती चुभते शूल भरे अपनों के ताने,

भोर प्रथम पहर उठती ढेरों फिकर लिये !!


एक बच्चा हाथ संभाले, एक कांख दबाये

कुदकती यूं अपनो की चिंता को लिये !

तरा ऊपर तीसरे पर रखती पूरी आंख,

जो चिंघता पीछे साङी का पल्लू लिये !


झिल्ली लिपटे मांस लोथङे की चेतना,

उदर को दुलारती सैकङो आशीषें दिये !!

दिन ब दिन फैली हुयी परिधि में संवरती,

विरूप गोलाई में क्षितिज का सूरज लिये !


नये जीवन को स्वयं रक्त से निर्माण करती,

फूले पेट की चौकसी में नींदे कुर्बान किये !

धमनियों शिराओं से जीवन रस पिलाती,

नवांग्तुक के लिये संस्कारों का लहू लिये !!


फुर्सत क्षणों मे ख्यालों के धागे को बुनती,

थकन से उनींदी सूजी आंखे हाथ लिये !

हदयस्पन्दन, ब्रह्माड से आकार को बढाती,

संशय के मकङजालों की जकङन लिये !


तीनों आत्माजाओं के

मासूम चेहरे देखती,

कहां जायेगी ?

गर फिर बेटी हुई,

उसको लिये...!!




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