मै क्या हूं ?
मै क्या हूं ?
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मैं, खुद को क्या परिभाषित करूं, शब्दो का सम्मिलित रूप हूं,
चांदनी में नहायी हुई या बरखा के बाद की खिली खिली धूप हूं
मुझमें है निशा सी शांत नीरवता और बहती नदी सी निश्चलता
चंद बूंदो में सागर तलाशती, और सामंजस्य बैठाती सी एकरसता,
मुझको चलते रहने की आदत है, मेरे पांवों में थकन नहीं होती
नहीं सोचती पलायन, मैं शमशीर सी जंग से परेशा नहीं होती।
मेरे हौसलों में इतनी जान है की, उड़ाने मेरी आसमां से भी उपर
इरादे इतने फौलादी मेरे, नारीरूप में भी नहीं किसी से कमतर।
किस्मत की घायल रूह हंसकर जीने की आस कभी नहीं छोङती,
कितनी रहूं बिंदास मगर अपनी देहरी के संस्कार कभी नहीं भूलती।
कुछ है भोली सी संवेदनाऐं और कोकिल कंठी सी मेरी स्वरंजनाऐ
राह से भूलूं ,भटकूं ना भरमाऊं, मेरे अपने लक्ष्य, अपनी हैं वर्जनाऐं।
जीवन की आपाधापी है फिर भी रिश्तो में पलक पांवङे सजा देती,
पानी सी घुल मिलती सबमें, लहरों से आगे तक नजर बिछा देती।
किंचित नहीं भयभीत,गीत है मेरा, नही है हार है और सामने जीत?
अभी तो नापी एक कदम की जमीन,अभी शेष है आंसमां संग प्रीत।
पत्थरों से गम को बांटती, हदय को आल्हादित करती रस का सागर
मेरी नींव है आधार और जमीं है चांद, विप्लव मूल्यों की हैं मेरी गागर।
मै क्या हूं ? मैं.. मेरी कल्पनाऐं कोरे कागज पे कविता मेरी बोल जाती हैं
उन्मुक्त,उच्चश्रंखल सी सासों में महुऐ की गंध सी निशा महक जाती है।