मैं उङ सकती हूं
मैं उङ सकती हूं
क्यूं लोग मुझे कहते हैं कि, मैं क्या हूं ?
क्यूं लोग मुझे कहते हैं कि, मैं क्या कर सकती हूं ?
अनदेखी सलाखें मुझे ही क्यों जकड़ती हैं
बैसाखिया सहारों की मुझे ही क्यों पकड़नी हैं
मैं उड़ सकती हूं, देखो और नाप भी सकती हूं,
सात परतों के भी पार उस क्षितिज के फलक को,
अंजुरी में ला सकती हूं ,उस चांद की ललक को।
मैं उड़ सकती हूं, देखो और बदल भी सकती हूं
अपने आत्मविश्वास से हवाओं के रूख को,
मुझ पर हंसने वाले, जुमले बोलते मुखो को।
मैं उड़ सकती हूं, देखो और तोड़ सकती हूं
मुझको जन्म लेने से रोकने वाली हर हदों को,
इन रिवाजो, परम्पराओं या फिर सरहदों को।
मैं उड़ सकती हूं, देखो और संभाल सकती हूं,
अपनों के प्यार, विश्वास और मर्यादाओं को,
घर और घर के बाहर की सारी जिम्मेदारियों को।
मैं उड़ सकती हूं, देखो और मार सकती हूं
मुझको नारी शब्द से छलने वाले उस डर को,
भेदती निगाहों से जिस्म को छूते हर शर को,
मैं उड़ सकती हूं, देखो चाँद के पार तक
उन्मुक्त पतंग सी यायावर ,हर बाधा को कर पार,
अपनी खुद की पहचान बनाती, खुद को कर तैयार।