किताब धरा की
किताब धरा की
जब किताब धरा की पढ़ती हूं
तो प्रकृति मां को नमन करती हूं।
जब जीवन में कुछ आस न हो
अवसाद का बस साथ घना हो।
तब जो गोद हमें दे देती है
सांसों को जो संवार देती है
उस प्रकृति मां को नमन करती हूं।
भूधर इसके हर्षाते हैं मन
पेड़ पौधे बने जिसके आभूषण।
नदियां बनी हैं जिसकी मेखला
अनदेखी करूं मैं कैसे ये भला।
उदास आनन पे मुस्कान लाती है
उस प्रकृति मां को नमन करती हूं।
जब सुकून की तलाश होती
वो बांहें अपनी पसार देती।
निधि अपनी को न्योछावर करती
आंचल की अपने छांव दे देती
उस प्रकृति मां को नमन करती हूं।
वो मां यूं ही न कहलाती है
सुगंधी से माटी की रूबरू कराती है।
मखमली गोद में हमें सुलाए
मोती ओस के हमें रिझाए।
मैं भाव विभोर हो जाती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।
सागर का गर्जन है इसमें
ज्वालामुखी भी धधकता इसमें।
पर निर्झर सा शांति सरोवर
पावन नदियों का संगम।
मैं निरख निरख हर्षाती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।
 
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समेटे है अनगिनत रहस्य
अद्भुत है इसका सौंदर्य।
गजब भरा है इसका आकर्षण
कौन रचे है इसको प्रतिपल।
मैं देख चकित हो जाती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।
कितने ही मोती माणिक हों
लंबे चौड़े महल यहां हों |
शांति नहीं वहां पर मिलती है
सुख नहीं वहां पर टिकता है।
वो सब कुछ यहां पा जाती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।
वह मेरी धरा की माटी की छुअन
वह पुष्प पल्लवों की सुगंध।
वो सब इसके अभिन्न अंग हैं
सब अलग हैं सब विभिन्न हैं।
किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।
रंग यहां हैं रूप यहां है
हम सबका जीवन यहां है।
यौवन का तो अद्भुत संसार
स्वास्थ्य का यहां पर है भंडार।
बस पन्नों को अपलक तकती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।
पेट जो सबका है भरती
भारों को जो सहन है करती।
पर कभी उफ तक न करती
अंतर तो कतई ना करती
उस प्रकृति मां को नमन करती हूं
जब किताब धरा की पढ़ती हूं।