ए शरद पूर्णिमा के चाँद
ए शरद पूर्णिमा के चाँद
श्वेत परिधान में जो आज है सजा हुआ
व्योम उर पर दीप सा जो जड़ा हुआ।
प्रज्वलित इस दीप से धरांगन मुस्कुरा उठा
कोना कोना वसुंधरा का जगमग जगमगा उठा।
देखकर चांद की आज अभिराम ये छटा
कवि हिय मेरा लिखने को कुछ मचल गया।
ये चंद्र रत्न नवनीत सम चमक चमक उठा
नवनीत सम ये चंद्र रत्न चमक चमक उठा।
नयन मेरे अनवरत निरख इसे हैं रहे
हो उल्लसित उपमाएं न जाने किस किससे दे रहे।
रे चंद्र , तेरे सौंदर्य से वसुधा निहाल हो उठी
देख तेरी चंद्रिका से धवलित कितना हो उठी।
चंद्रिका ये तेरी , मो
हक कितनी दिख रही
श्वेत आंचल से वो तो वसुधा को पंखा झल रही।
शीतल, मंद बयार के झोंके जो चल रहे हैं
मादक सुगन्धि के आगोश में, सब खोए खोए हो रहे हैं।
ए चंद्र की चंद्रिका, ए चंद्र की प्रियतमा
इसी दिन तो कान्हा का महारास था रचा।
तू अपने चांद की ज्योत्सना जब से बनी
धरा ये सारी प्रेम रस में तब से है पगी।
ओ चांद, देख कर तुझे मन ऐसे अभिभूत हो रहा
मानो संगीत का जैसे कोई साज बज रहा।
तरंगे हृदय में हैं डोलने लगीं
राग रागनियां डेरा मन में डालने लगीं।
जरा ठहर, शरद पूर्णिमा के ए चांद
आज तो लेने दे मुझे अपनी नजर उतार।