अनूठी सौगात के बेशकीमती लम्हें
अनूठी सौगात के बेशकीमती लम्हें
आशियाना था उसका एक छोटे से कमरे में
वह मालिन रहती थी उस बगीचे के कोने में।
वो पार्क को बड़े ही मनोयोग से थी संवारती
उसके बाहर की सड़क भी सलीके से थी बुहारती।
वो काफी सारी ईंटें धर सिर पर जब चलती
जिम के डंबल्स को भी मात तब करती।
मैं चकित सी हो तब उसको तकती
जब तब नजरें टकराने पर वो नमस्ते थी करती।
यद्यपि ठंड अपने पूरे रंग में थी
सर्द हवाओं की चुभन बदन पर थी।
पार्क पथ की धुलाई तब भी वो थी करती
जल स्पर्श के नाम से ही जब सिहरन थी होती।
वहां की मखमली घास उसके श्रम की परिचायक थी
वहां का अद्भुत सौंदर्य उसकी मेहनत का ही प्रतिफल था।
वहां का पत्ता पत्ता मन को खूब आकर्षित करता था
पुष्पों को निहारते निहारते मन कभी न थकता था।
एक दिन वो बोली थी मुझसे
दीदी, नंगे पांव चला करो ना घास पर पे।
हंसकर मैंने हामी भरी थी
बात तो उसने सही कही थी।
वो सदैव कर्मरत रहती, प्रसन्नवदना रहती
काम करते-करते, फोन पर खूब खिलखिलाती।
आज वो फावड़े से नई क्यारियां बना रही थी
नवीन नन्हे पौधों के वास्ते सदन बना रही थी।
समीप उसके ढेर सारे पौधे रखे थे
जो कि सुंदर सुमनों से सजे थे।
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जैसे ही मैं उसके पास से निकली
क्षण भर को नजर पुष्पों पर अटकी।
दो चार पग ही आगे बढ़ी थी
तभी कानों में आवाज पड़ी थी।
दीदी , कुछ पौधे आप ले जाइए
गमलों में अपने इन्हें सजाइए।
पलटकर बोली मैं, अच्छा पैसे तू बता दे
ये पौधे फिर मुझे थमा दे।
ना दीदी, पैसे तो मैं आपसे कतई न लूंगी
ये तो मैं आपको अपनी खुशी से दूंगी।
फिर रहने दे, कह मैंने उसको टाल दिया
पौधों को बस नैनों से यूं ही निहार लिया।
अगले दिन जब मैं बगीचे से रुखसत होने लगी
तो उसकी बिटिया की आवाज कानों में पड़ी।
आंटी, मां मेरी काम पर गई हैं
पर आपके लिए वह पौधे रख गई हैं।
अब मैं उस आग्रह को न टाल सकी
वापस मैं उस स्थल पर जा पहुंची।
जहां कुछ नन्हे पौधे मेरा इंतजार कर रहे थे
बाकी तो क्यारियों में लहलहा रहे थे।
सप्त पौधों से उस बच्ची ने जब मेरा आंचल भर दिया
जिंदगी के लम्हों ने दामन मेरा नई खुशियों से भर दिया।
उस गरीब की अनूठी सौगात के वो बेशकीमती लम्हें
उन सुकुमारों के मेरे घर आने के वो बेशकीमती लम्हें।
वो पल तो मेरी जिंदगी के यादगार पलों में शुमार हो गए
एक अनजाने रिश्ते की सौगात के वो कर्जदार हो गए।