तू कहाँ खो गयी
तू कहाँ खो गयी
खोजती हूँ उसको ना मिलती है मुझे
बावरी सी खोजूं मैं चहूँ ओर ही तुझे
मोलभाव के तराजू से भी न तुलती है जो
किसी भी बाजार में न बिकती है जो
बचपन की ओ बेफिक्री तू कहां खो गई
दूर मुझसे न जाने कब से हो गई।
मां की गोद में मिली थी कभी
उसके आंचल में छुपी थी कभी
उसके स्नेह में बसी थी कभी
दुलार में उसके सजी थी कभी
बड़े होते ही वो मुझसे छिन गई
बचपन की वो बेफिक्री तभी से खो गई।
ख्वाहिशें बढ़ीं तो तू दूर हो गई
तले महत्वाकांक्षाओं के ही दब गई
पास अपने है क्या न देखा कभी
पास अपने है क्या सोचा ना कभी
दूजों की तरक्की से जो जल -भुन गई
बचपन की वो बेफिक्री तो वहीं बुझ गई।
माटी में लोटते गुब्बारों से खुश हो जाते
रिश्तों के सोंधेपन से घर अंगना महकाते
न नशाखोरी थी न कोई चोरी थी
उच्च संस्कारों&
nbsp;की ही तो वो डोरी थी
रिश्तों में जो आदर सम्मान था
उसमें ही तो बेफिक्री का भाव था
ये सब दूर हुए, साये दरख़्तों के मजबूर हुए
एकाकीपन की जंजीरों में जकड़ती चली गई
बचपन की ओ बेफिक्री तू कहां खो गई।
वो तितलियों के पीछे दौड़ते कदम
वो कलरव की रागिनियों में भीगते से मन
यही तो बसी थी वो बेफिक्री
यहीं तो सजी थी वो बेफिक्री
प्रगति पथ पर अग्रसर कदमों के तले
पाषाण सदृश हो चुके दिलों के तले
बेफिक्री पूर्णरूपेण ही कुचल गई।
तब था गैरों को भी अपना बना लेना
अब है अपनों को भी गैर बना देना
जब भावना अपनत्व की न रही
तो कुटिया बेफिक्री की ही तो ढही
वो परस्पर अनुराग वो प्रेम खो गया
सर्वत्र राज बस नैराश्य का ही हो गया
जब रहने की इसकी जगह ही न रही
तो चुपके से यह इक दिन निकल गई।